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14:53, 28 मई 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=लीलाधर मंडलोई
|संग्रह=रात-बिरात / लीलाधर मंडलोई
}}
<poem>
थुबते ही नहीं हैं पाँव
झींकती है रात दिन वह
मुँडेर पर उसकी एक कौव्वे का चीखता
गुनती है रोज माँ
माँ उदास है
परछट्टी में बैठे बड़ाते हैं
वही कौव्वा देर तक बापू
बापू भयभीत हैं
भाइयों को कुछ नहीं मालूम
वे धींगामुस्ती कर रहे हैं
बाहर और यहाँ तक घर में
माँ को अच्छा लगता है यह सब
और वह परेषान है
माँ की आँखों में चिंता है बाद की
कितना सही है यह समय उसके माँ हो जाने का