1,153 bytes added,
11:03, 9 जून 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=चंद्रभानु भारद्वाज
|संग्रह=
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
न धरती है न अब आकाश अपना;
हमारे संग है विश्वास अपना।
गड़ाया पीठ में चाकू उसीने,
समझते थे जिसे हम ख़ास अपना।
उमर के प्रष्ट कुछ भीगे हुए हैं,
लिखा है दर्द ने इतिहास अपना।
न दीवारें न दरवाजे न खिड़की,
खुला फुटपाथ है आवास अपना।
सहमती कांच की खिड़की हमेशा,
बना घर पत्थरों के पास अपना।
कहाँ तक रूढियों को और ढोऐं,
नजरिया हो गया बिंदास अपना।
रहे बारात 'भारद्वाज' चौकस,
ठगों के बीच है जनवास अपना।
</poem>
Delete, KKSahayogi, Mover, Protect, Reupload, Uploader