1,579 bytes added,
11:20, 9 जून 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=चंद्रभानु भारद्वाज
|संग्रह=
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
सूखती झील में काइयाँ रह गईं;
हंस सब उड़ गए मछलियाँ रह गईं।
रेत सी उम्र कण कण बिखरती रही,
हाथ खाली बँधी मुट्ठियाँ रह गईं।
सत्य को बिन सुने ही अदालत उठी,
आँसुओं से लिखी अर्जियाँ रह गईं।
अब खरीदे हुए मंच के सामने,
बस ख़रीदी हुई तालियाँ रह गईं।
यह सियासत पुलिंदा बनी झूठ का,
गाँठ में गालियाँ फ़ब्तियाँ रह गईं।
अब घटाओं में पानी रहा ही नहीं,
गड़गड़ाहट रही बिजलियाँ रह गईं।
रूह तो उड़ गई जल गई देह भी,
राख के ढेर में अस्थियाँ रह गईं।
प्यार के ख़त नदी में बहाए मगर,
याद की शेष कुछ सीपियाँ रह गईं।
काट कर दिल 'भरद्वाज' लिख दी ग़ज़ल,
पर कहीं ख़म कहीं खामियाँ रह गईं।
</poem>
Delete, KKSahayogi, Mover, Protect, Reupload, Uploader