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{{KKRachna
|रचनाकार=परवीन शाकिर
|संग्रह=खुली आँखों में सपना / परवीन शाकिर
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<poem>
मैं हिज्र के अज़ाब से अनजान भी न थी
पर क्या हुआ कि सुबह तलक जान भी न थी

आने में घर मिरे तुझे जितनी झिझक रही
इस दर्जा तो मैं बेसर ओ सामान भी न थी

इतना समझ चुकी थी मैं उसके मिज़ाज को
वो जा रहा था और मैं हैरान भी न थी

दुनिया को देखती रही जिसकी नज़र से मैं
उस आँख में मेरे लिए पहचाना भी न थी

रोती रही अगर तो मैं मजबूर थी बहुत
वो रात काटनी कोई आसान भी न थी

</poem>
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