भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
''' इतना कुछ होता है यहां '''
जबकि कोई हुक्मरान
डिनर कर रहा होता है
सूचना क्रान्ति का विगुल बजाते
इस महान राष्ट्र का भविष्य?
अरे, तुम यमुना-किनारे गंदी बस्तियों से भी मत पूछो--कम से कम सौ सालों तक ,
कि यह देश किस शिखर पर
उड़ बैठेगा
गली-गली मचलती सुन्दरता से
और तंगहाली के दिन लड़ लद गए हैं,
यहां, कोई नहीं है
भूखा, नंगा, बेघर
युवक-युवतियां
बनाएंगे इस कुरूप राष्ट्र को
धत!
इस कम्प्यूटर रेस में
बातें मत करो आवेश में--
क्योंकि नहीं रहा आर्यावर्त्त दीन-देहाती,
कायांतरित होता जा रहा है यह
बेघरों को मिलते हैं मकान
खुलते हैं कल-कारखाने,
जिनसे कृतार्थ हो रहे हैं बेरोज़गार,
सच मानो!
छिपक-छिपक धुन पर
उड़ते महायानों में सरपट सवार
पेरिस,लन्दन, न्यूयार्क में उतर
हमारे प्रवासी विशिष्टजन
चुग रहे होते हैं राजहरमों में