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पुरुष / मनोज श्रीवास्तव

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''' पुरुष '''
 
पुरुष औरत के जिस्म का
वह कीड़ा है
जो उसे ताउम्र
काटता
कुतरता और
कतरता जाता है
 
वह उसे
चाटता है
चबाता है
चूसता है
चिचोरता है
और धीरे-धीरे
चट कर जाता है
 
यही है औरत के लिए
प्रेम, करुना और दया से संश्लिष्ट
उसका सार्वभौमिक पुरुषत्त्व
या, उसके प्रति उसका
सर्वस्वीकृति, सर्वमान्य
ऐतिहासिक सौन्दर्यबोध
 
यह कातिलाना सौन्दर्यबोध
विस्तीर्ण है, विराजमान है
असीम, अविराम, अविच्छिन्न--
गीता से कुरान तक,
आदिम से वर्तमान तक,
देव से दानव तक,
दूरदर्शन से देह-दुकान तक
और घर से लड़ाई के मैदान तक.