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सन्नद्ध / रमेश कौशिक

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<poem>
मैं थक चुका हूँ
रोज़-रोज़
सुनते-सुनते
तुम्हारी दण्ड-संहिता

लग भी जाने दो अब
इस जंगल में पलीता

देखता हूँ
इसके बाद मरता हूँ
या
जीता
</poem>
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