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साम्प्रदायिक / मुकेश मानस

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<poem>

कुछ न कुछ जलाते रहना
हमारी राष्ट्रीय आदत है
और पहचान भी

अपनी बहुओं, पकी फसलों और पुतलों को जलाने की
हमारे यहाँ बड़ी गौरवपूर्ण परम्परा रही है

फिर हम विदेशी कपड़ों
और सरकारी वाहनों को भी जलाते आये हैं
आजकल तो हम
गुरुद्वारों, मस्जिदों और चर्चों को भी जला डालते हैं

हमें कुछ न कुछ जलाने की आदत सी पड़ चुकी है
अगर हम जलाने पर आ जायें
तो पूरा का पूरा शहर भी जला सकते हैं
जैसे गुजरात का गोधरा

अगर हमारे हाथ में तीली हो
फिर चाहे धरती गीली हो
हम चाहें तो पूरी की पूरी
धरती भी जला सकते हैं
2002
<poem>
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