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Kavita Kosh से
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करता है बसर सीने में जादू-सा कोई शख़्स,
फूलों-सा कभी और कभी चाकू-सा कोई शख़्स।
पहले तो सुलगता है वो लोबान की मानिंदके जैसे, फिर मुझमें बिखर जाता है ख़ुशब- सा कोई शख़्स।
मुद्दत से हूँ किसी मिरी आँखें उसी को निगाहों में हैं संभाले, बहता नहीं अटका हुआ आँसू-सा कोई शख़्स।
ख़्वाबों के दरीचों में वो माजी की हवा से, लहराता है उलझे हुए गेसू-सा कोई शख़्स।
शाख ऐ शजर को देख के वो याद बहुत आया,
जब बि था मुझसे जुदा हुआ मेरी मिरे बाजू-सा कोई शख़्स।
ग़ज़लों की बदौलत है ही तो वो शख्स निहां मुझमें, बसा है सरमाया ऐ हस्ती है वो उर्दू-सा कोई शख़्स।
मिल जाता है उम्मीद के जुगनू सा कोई शख़्स।
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