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<poem>


कैसे भूल सकता हूँ वो शाम
बढ़ा चला आता था तिमिर
रौशनी पड़ रही थी मद्धम
और घिरता जा रहा था मैं
एक अतल निराशा में

पहली बार जब देखा तुम्हें

एक लहर सी उठी
ठहरे हुए समंदर में कहीं
हवा में लहराकर बिखरने लगे
चंपा के मदमदाते फूल
और बहने लगी हँसी तुम्हारी
मेरे भीतर
निश्छल निर्मल जल सी

मचलने को आतुर हुआ मन
जाने कितनी इच्छाएं
जाने कितनी अभिलाषाएं
जाने कितने देखे-अदेखे स्वप्न
साकार होने को
बेताब से होने लगे
लगा कि जैसे हटने लगा
बोझ कोई मन से

लगा कि जैसे छँटने लगी
धुँध कोई नज़र से

लगा कि जैसे बसंती फूल सा
खिलने लगा मैं

लगा कि जैसे जाग गया हूँ
अतल, अगम किसी गहरी नींद से

पहली बार जब देखा तुम्हें
2006



<poem>
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