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<poem> जोर भयो तन काम को आयो प्रकट बसंत।बाढ़यो तन में अति बिरह भो सब सुख को अंत॥1॥ चैन मिटायो नारि को मैन सैन निज साज।याद परी सुख देन की रैन कठिन भई आज॥2॥परम सुहावन से भए सबै बिरिछ बन बाग।तृबिध पवन लहरत चलत दहकावत उर आग॥3॥कोहल अरु पपिहा गगन रटि रटि खायो प्रान।सोवन निसि नहिं देत है तलपत होत बिहान॥4॥है न सरन तृभुवन कहूँ कहु बिरहिन कित जाय।साथी दुख को जगत में कोऊ नहीं लखाय॥5॥रखे पथिक तुम कित विलम बेग आइ सुख देहु।हम तुम-बिन ब्याकुल भई धाइ भुवन भरि लेहु॥6॥मारत मैन मरोरि कै दाहत हैं रितुराज।रहि न सकत बिन मिलौ कित गहरत बिन काज॥7॥गमन कियो मोहि छोड़ि कै प्रान-पियारे हाय।दरकत छतिया नाह बिन कीजै कौन उपाय॥8॥हा पिय प्यारे प्रानपति प्राननाथ पिय हाय।मूरति मोहन मैन के दूर बसे कित जाय॥9॥रहत सदा रोवत परी फिर फिर लेत उसास।खरी जरी बिनु नाथ के मरी दरस के प्यास॥10॥चूमि चूमि धीरज धरत तुव भूषन अरु चित्र।तिनहीं को गर लाइकै सोइ रहत निज मित्र॥11॥यार तुम्हारे बिनु कुसुम भए बिष-बुझे बान।चौदिसि टेसू फूलि कै दाहत हैं मम प्रान॥12॥परी सेज सफरी सरिस करवट लै पछतात।टप टप टपकत नैन जल मुरि मुरि पछरा खात॥13॥निसि कारी साँपिन भई डसत उलटि फिरि जात।पटकि पटकि पाटी करन रोइ रोइ अकुलात॥14॥टरै न छाती सौं दुसह दुख नहिं आयौ कंत।गमन कियो केहि देस कों बीती हाय बसंत॥15॥वारों तन मन आपुनों दुहुँ कर लेहुँ बलाय।रति-रंजन ‘हरिचंद’ पिय जो मोहि देहु मिलाय॥16॥(सन् 1874 को ‘हरिश्चन्द्र मैगज़ीन’ में प्रकाशित) </poem>