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यह नीला रंग / पूनम तुषामड़

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<poem>
जब-जब निहारा है मैंने
उस आदमकद मूर्ति को
तब-तब
अनायास ही
भर जाता है मेरा मन
गर्व और आत्मविश्वास से।
मेरी निगाहों में उतर आता है
तैरता हुआ यह नीला रंग
जो उस युग पुरुष के
वस्त्रों से निकल
फैल जाता है चारों ओर।
मैं आनंदित हो निहारती हूं
आकाश को
जो अब मुझे पहले से ज्यादा
नीला और साफ दिखता है।
शाम के सूर्य के इर्द-गिर्द
चक्कर लगाता यह नीला रंग
बताता है कि -
सूर्य की किरणें
उससे अलग नहीं हैं
संध्या की सुंदरता
उसके बिना
अधूरी है।
अंधेरी राहों में
आगे बढ़ने का हौंसला
प्रबल हो जाता है
जब दीप की लौ में
वही नीला रंग
टिमटिमाता है।
जिस तरह हमारी रक्त-धमनियों का नीला रंग
लहू के साथ प्रवाहमान हो
शिराओं में बहता है
और जीवनदायी बन जाता है।
</poem>