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|रचनाकार=अहमद फ़राज़
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[[Category:गज़ल]]
<poem>
ग़ज़ल सुन के परेशां हो गए क्या,
किसी के ध्यान में तुम खो गए क्या,

ये बेगाना-रवी पहले नहीं थी,
कहो तुम भी किसी के हो गए क्या,

ना पुरसीश को ना समझाने को आए,
हमारे यार हम को रो गए क्या,

अभी कुछ देर पहले तक यहीं थी,
ज़माना हो गया तुमको गए क्या,

किसी ताज़ा रफ़ाक़त की ललक है,
पुराने ज़ख़्म अच्छे हो गए क्या,

पलट कर चाराग़र क्यों आ गए हैं,
शबे-फ़ुर्क़त के मारे सो गए क्या,

‘फ़राज़’ इतना ना इतरा होसले पर,
उसे भूले ज़माने हो गए क्या,
</poem>
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