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मिलन / संजय मिश्रा 'शौक'

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प्रीतम से मिलने को व्याकुल
हुई बावरी
मेरी आत्मा
सुध-बुध भूल गई सब तन की
खोज रही बिछड़े प्रीतम को
आँखों में झाईं पड़ने से
राह नज़र से दूर हुई है
और जबान के छाले पी का
नाम पुकार-पुकार बढे हैं
पियु न आयो
तन की चादर
जगह-जगह से चाक हुई पर
रूह की बेचैनी तो देखो
उसे खबर ही नहीं बदन की
चादर तो उतरेगी इक दिन
बिना उतारे
कोई न मिल पाया जब पी से
तो गम कैसा
मिलने से पहले
आमाल की पूंजी सारी जमआ करो और
बाक़ी सब सामन यहाँ का
यहीं छोड़ दो
हवस तुम्हे जब देखे
तो खुद शर्मा जाए
तपी हुई तन की भट्टी में
यही आत्मा
प्रीतम की अंगनाई में
जब पहुंचेगी तो रक्स करेगी
वही रक्स जो
सूफी मसलक की बुनियादों में शामिल है
वही रक्स जो महारास है
उसी रक्स की मेरी आत्मा को जुस्तजू है</poem>