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ज़वाल / संजय मिश्रा 'शौक'

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तमाम दुनिया सिमट गई है
जब एक सिम में
तो दूरियों का कोई भी शिकवा
न काम आएगा इस जहां में
ये "नेट" की तकनीक हमको
तमाम दुनिया से जोडती है
जिसे भी चाहें जहां भी चाहें
वही पकड़ में है अब सभी के
मशीन से तालमेल बेहतर हुआ है लेकिन
वो गर्मजोशी वो खुशकलामी हवा हुई है ?
फरेब देना, फरेब खाना
यही तो फितरत रही है आदम की
इस जमीं पर
यही सबब है कि अपनी 'पहचान''
को छिपाकर
ये नेट पे बेजा खुशी की चाहत
में रास्ते से भटक रहे हैं
जो घर में मिलता है प्यार उसको
ये घर से बाहर खरीदने में लगे हुए हैं
खुलेगी इनकी भी आँख इक दिन
ये तय है लेकिन
अभी समय है!
जहां का तो ये नियम है बाबा
यहाँ पे सब कुछ
बिगड़ के बनता रहा है
अब तक
मगर हमारे अहद की तेजी
ये कह रही है
कि वक़्त रहते ही जख्म की
गर दवा करोगे
तो जख्म जल्दी ही ठीक होगा
वगरना इसकी दवा नहीं है
निजामे-कुदरत
से कोई भी लड़ सका है अब तक!
दिलों को आपस में जोड़ता है
वो प्यार बिकता नहीं कहीं भी
गुरुरों - जेहलो -सुरूर छोड़ो
हर इक मुहब्बत को अपने दामन में
भर न पाए तो तुम गलत हो
खरीदने की ये कोशिशे सब फिजूल ठहरीं
तुम्हारा बिकना भी तय है इनको खरीदने में !!!</poem>