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शक / संजय मिश्रा 'शौक'

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हमें भरोसा नहीं
अपने आप पर बिल्कुल
हम अपने बच्चों पे
शक की निगाह रखते हैं
कि छोड़ देते हैं जासूस उनके पीछे भी
खबर वो देते हैं पल-पल की
नक्लो-हरक़त की
हम अपने घर को बचाने की नेक हसरत में
ये जान बूझ के सारे गुनाह करते हैं
नज़र भी रखते हैं हम दूसरों के ऐबों पर
गिनाते रहते हैं फिर दूसरे के ऐबों को
निगाह खुद पे नहीं डालते कभी हम लोग
हमारे एबो-हुनर ही हमारे बच्चों में
दिखाई देते हैं हमको तो गम भी होता है
इलाज इसका भी मुश्किल नहीं है ई लोगों
हम अपने आप पे रखने लगें निगाह अगर
हमारे ऐब हमें वक्त पर दिखाई दें
इलाज उनका भी हम वक़्त पर ही कर डालें
हमें न करना पड़े शक किसी भी इन्सां पर !!!</poem>