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13:12, 26 नवम्बर 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार= श्रद्धा जैन
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<poem>
तिश्नगी थोड़ी बढ़ाकर देखना
सूख जाएगा समुन्दर देखना
अपनी आदत, अपने अन्दर देखना
देखना खुद को निरंतर देखना
हर बुलंदी पर है तन्हाई बहुत
सख्त मुश्किल है सिकंदर देखना
झूठ-सच का फैसला लेना हो जब
चीखता है कौन अन्दर देखना
शाख से टूटा हुआ पत्ता हूँ मैं
देखना मेरा मुक़द्दर देखना
खून जिनका धर्म और ईमान है
उनके छज्जे पर कबूतर देखना
गर यूँ ही खुदगर्ज़ियाँ बढती रहीं
लोग हो जाएँगे पत्थर देखना
अश्क का दरिया न बह पाया अगर
दिल भी हो जाएगा बंजर देखना
मेरा और साहिल का रिश्ता है अजब
दोनों के रस्ते में पत्थर, देख ना !
</poem>
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