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'''काव्य संग्रह [[दीपशिखा / महादेवी वर्मा|दीपशिखा]] से'''<br><br>
प्राण हँस कर ले चला जब<br>चिर नीरवव्यथा का भार!<br><br>
मैं सरित विकल!उभर आये सिन्धु उर में<br>तेरी समाधि को सिद्धि अकलवीचियों के लेख,<br>चिर निद्रा में सपने का पलगिरि कपोलों पर न सूखी<br>ले चली लास में लय गौरवआँसुओं की रेख।<br>धूलि का नभ से न रुक पाया कसक-व्यापार!<br><br>
मैं अश्रु-तरल!शान्त दीपों में जगी नभ<br>तेरे ही प्राणों की हलचलसमाधि अनन्त,<br>पा तेरी साधों का सम्बलबन गये प्रहरी,पहन<br>मैं फूट पड़ी ले स्वरआलोक-वैभवतिमिर, दिगन्त!<br>किरण तारों पर हुए हिम-बिन्दु बन्दनवार।<br><br>
मैं सुधिस्वर्ण-नर्तन!शर से साध के<br>पथ बना, उठे जिस ओर चरणघन ने लिया उर बेध,<br>दीश रचता जाता नूपुरस्वप्न-स्वन,विहगों को हुआ<br>यह क्षितिज मूक निषेध!<br>जगता जर्जर जग क्षण चले करने क्षणों का शैशवपुलक से श्रृंगार!<br><br>
मैं पुलकाकुल!शून्य के निश्वास ने दी<br>पल पल जाती रस गागर ढुलतूलिका सी फर,<br>प्रस्तर ज्वार शत शत रंग के जाते बन्धन खुल,<br>लुट रहीं व्यथा-निधियाँ नव-नवफैले धरा को घेर!<br>वात अणु अणु में समा रचने लगी विस्तार!<br><br>
मैं चिर चंचल,अब न लौटाने कहो<br>मुझसे है तट-रेखा अविचलअभिशाप की वह पीर,<br>तट पर रुपों का कोलाहल,बन चुकी स्पन्दन ह्रदय में<br>रस-रंग-सुमन-तृण-कणवह नयन में नीर!<br>अमरता उसमें मनाती है मरण-पल्लवत्योहार!<br><br>
मैं ऊर्मि विरल!छाँह में उसकी गये आ<br>तू तुंग अचल, वह सिन्धु अतलशूल फूल समीप,<br>बाँधे दोनों को मैं चल,ज्वाल का मोती सँभाले<br>धो रही द्वैत के सौ कैतव!<br>मोम की यह सीप<br> मैं गति विह्वल!<br>पाथेय रहे तेरा दृग-जल,<br>आवास मिले भू का अंचल,<br>मैं करुणा की वाहक अभिनवसृजन के शत दीप थामे प्रलय दीपाधार!<br><br>