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कुछ मुक्तक / लाला जगदलपुरी

26 bytes added, 15:57, 30 नवम्बर 2010
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01'''1. '''
जो तिमिर के भाल पर उजले नख़त पढते पढ़ते रहेवे बहादुर संकटों को जीत कर बढते बढ़ते रहे
कंटकों का सामना करते रहे जिसके चरण
ओ बटोही! फूल उसके शीश पर चढते रहे। चढ़ते रहे ।
02'''2.'''
शौर्य के सूरज चमकते आ रहे हैं,
सांझ साँझ उनके व्योम पर आती नहीं है
आरती के दीप जलते जा रहे हैं
आँधियों की जीत हो पाती नहीं है। है ।
03'''3.'''
सूर्य चमका सांझ की सौगात दे कर बुझ गया
चाँद चमका और काली रात दे कर बुझ गया
किंतु माटी के दिये की देन ही कुछ और है
रात हमने दी जिसे वो प्रात दे कर बुझ गया। गया ।
</poem>
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