भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
विश्वास / दिनेश जुगरान
Kavita Kosh से
ले लो तुम
मेरा पूरा अतीत
उसकी लाल धूप
प्रार्थनाओं में गूंजता
एकाकी स्वर
पराजित कोने
विभाजित व्यक्तित्व
खौफनाक सपनों के युद्ध
और दे दो
बदले में अपना विश्वास
दिनचर्या का विश्वास नहीं
जो कहता है
यदि तुम मेरे हो
तो मैं तुम्हारा
मुझे चाहिए विश्वास
जो चमकता हो माथे पर
सूरज की तरह
विश्वास जो विदा और प्रतीक्षा के
क्षणों में
रहे आकाश की तरह
स्थिर
विश्वास जो महकता है
उन फूलों की तरह
जो बग़ीचों में नहीं उगते
मुझे नहीं चाहिए
पलकें झपका कर अभिव्यक्त
रोज़ाना का
आश्वासन
मुझे चाहिए
तुम्हारे अंदर की
धरती से उपजी ऊर्जा से
भरा विश्वास
जो करे मुझे
स्वतन्त्र
उन्मुक्त ओर स्वच्छन्द!