विसर्जन / उत्पल बैनर्जी / मंदाक्रान्ता सेन
पुराने कमरे की फ़र्श पर पड़ी हुई थी
अस्त-व्यस्त साड़ी
उसे भी छोड़कर वह युवती अनाड़ी
आधी रात देहरी से बाहर निकल गई
वहाँ, घर के बाहर मैदान का संदिग्ध विस्तार था ...
उस युवती ने सोचा था कि
रोज़ रात को बिकने के बजाय
एक रोज़ अन्धेरे में
इस अन्धकूप को तैर कर पार करके
चली जाएगी किसी दूरवर्ती घाट पर
यह तो उसका पहला ही घाट था
स्त्रियों का जीवन तो
बहते-बहते ही कटता है ...
निहायत नासमझ लड़की थी वह
अन्धेरा उसकी नाव नहीं था
और नदी की हर बाँक पर था डर
तमाम घाटों पर बहते रहना हो तो
तैराकी का आना भी तो ज़रूरी है
लेकिन वह युवती आज तक
ठीक से तैरना तक नहीं सीख सकी थी
जो होना था वही हुआ
लड़की ने जैसे ही डोंगी खोल दी
तुरन्त उसकी बेआबरू देह पर
भीतर तक बिन्ध गया आदिम पृथ्वी का अन्धेरा
अकेला नहीं, झुण्ड के झुण्ड मृतजीवी
सामूहिक बलात्कार के बाद
मैदान में पड़ी रही लाश
गले में फन्दा उसी के ब्लाउज़ का
दो-तीन दिन बाद
आनन-फानन जाने कौन लोग
गाड़ गए वह लाश
अब उस कमरे में एक नई लड़की है
जिसने वही छोड़ी हुई साड़ी पहन रखी है ...