वे दुलारी हैं तुम्हारी
टुकड़ा तुम्हारे हृदय का,
रोशनी हैं तुम्हारे अंधेरों की
और हैं रक्षा-सूत्र
जो सजा है तुम्हारी
बलिष्ठ कलाइयों पर,
तुम्हारा मान हैं और गर्व भी।
पर वे जानती हैं
ये सब हैं वे तभी तक
जब तक
वे उठ रही हैं, बैठ रहीं हैं, बोल रहीं हैं,
पहन रही हैं कपड़े
और सोच भी रही हैं
तुम्हारी सुविधा से।
जिस दिन भी
उन्होंने आजादी से सोचा,
जुर्रत की प्रेम करने की,
अपने शरीर को मान लिया अपना
उसी दिन
तुम्हारी संस्कृति को
हो जाएगा सन्निपात और
तुम अपने भीतर की
सारी कुरूपता के साथ
टूट पड़ोगे उन पर
चबा जाने को उनका अस्तित्व।
मगर
तुम्हारे इस भयानक
दोगलेपन के बावजूद
वे सोचने भी लगी हैं
आजादी से
और करने लगी हैं
प्रेम भी।