कैसे जाऊँ भूल भला मैं, वे मादक, मदमाती आँखें
जीवन के मरु पर पीयूषी घट के घट छलकाती आँखें
तिरछी चितवन से घायल
मन के पंछी को सुुुुख का मिलना
डबडब आँखों में पुलकाकुल
प्राणों के सरसिज का खिलना
बाँके तिरछे आखर वाली अमर प्रणय की पाती आँखें
जब-जब कोई बात न मानी
हुई कभी जब खींचा-तानी
बहा ले गया तब-तब मुझको
कजरारी आँखों का पानी
चैन नहीं पाता था जब तक देख न लूँ मुस्काती आँखें
उन आँखों में बड़ी चुभन थी
प्रिय-दर्शन की मुग्ध लगन थी
प्राणों का थी सहज समर्पण
मेरे कवि जीवन का धन थीं
पलकों का छवि-घूँघट डाले झुकी-झुकी शर्माती आँखें
मेरे प्राणों के प्रदीप की ज्योति लुटाती बाती आँखें
कैसे जाऊँ भूल भला मैं, वे मादक, मदमाती आँखें
-24.7.1976