भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वे हैं / दिनेश कुमार शुक्ल
Kavita Kosh से
जिन्हें हम जा चुका समझते हैं
वे रहते हैं हमारे आस-पास किसी-न-किसी रूप में
वर्तमान में रिक्त की तरह
संवेदना में स्मृति की तरह
सत्य में पवित्र भ्रम की तरह,
अपनी अनुपस्थिति में भी उपस्थिति हैं वे
रोज अधकही रह जाने वाले अकथ-कथा की तरह
अब अस्तित्व का पहाड़
पीस नहीं पाता उन्हें अपने वज़न से
उसे भी फाँद कर आते हैं वे
जिन्हें हम जा चुका समझते हैं,
पुनर्जीवन की तरह दुर्निवार
वे लाते हैं अपना अनन्त विस्तार
असार संसार का सार अपनी आँखों में भरे
अन्तर्मन में डूबी आवाजों की तरह
संरचना के सूक्ष्म-सूक्ष्मतर तंतु
और ताने-बाने को
वे झंकृत करते रहते हैं
हल्के-हल्के अपनी उपस्थिति के निनाद से