वोट बैंक – आम आदमी/ सजीव सारथी
लफ्ज़ रूखे, स्वर अधूरे उसके,
सहमी-सी है आवाज़ भी,
सिक्कों की झनकारें सुनता है
सूना है दिल का साज़ भी,
तन्हाईयों की भीड़ में गुम
दुनिया के मेलों में,
ज़िन्दगी का बोझ लादे
कभी बसों में, कभी रेलों में,
पिसता है वो हालात की चक्कियों में,
रहता है वो शहरों की बस्तियों में,
घुटे तंग कमरों में आँखें खोलता,
महँगाई के बाज़ारों में खुद को तोलता,
थोड़ा सा जीता, थोड़ा सा मरता
थोड़ा सा रोता, थोड़ा सा हँसता,
रोज़ यूँ ही चलता- आम आदमी।
मौन-दर्शी हर बात का,
धूप का, बरसात का,
आ जाता बहकाओं में,
खो जाता अफ़वाहों में,
मिलावटी हवाओं में,
सड़कों में, फुटपाथों में,
मिल जाता है अक्सर कतारों में,
राशन की दुकानों में,
दिख जाता है अक्सर बाज़ारों में
रास्तों में, चौराहों में,
अपनी बारी का इंतज़ार करता
दफ़्तरों-अस्पतालों के बरामदों में,
क्यों है आख़िर
अपनी ही सत्ता से कटा छटा,
क्यों है यूं
अपने ही वतन में अजनबी-
आम आदमी।