भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वो अँधेरा / पंछी जालौनवी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

फिर यूं हुआ
हम बचे खुचे
थोड़ा-सा ही सही
अपने गाँव
पहुँच गये
मगर साथ हमारे
चला आया है
वो अँधेरा भी
जो इसबार हमारे
अंदर से निकला था
काश।
उसने हमारे साथ
सफ़र किया होता
तो हम उसे रस्ते में
किसी पुल से धकेल देते
किसी दरिया में फेंक देते
या फिर किसी
पहाड़ की ऊंचाई से
किसी खाई में डालकर
वीरानियों में
तहलील कर देते
काश।
ऐसा होता
काश उसने मेरे साथ
सफ़र किया होता॥