वो आना चाहती है-6 / अनिल पुष्कर
उसे देखकर लगा कि
नज़र की कोर पे मजहबी रंग नहीं चढ़ा कभी
वो अम्न का पैगाम लिए अदाकारा-सी उतरी
अन्दाज ओ अदा से रिझाती है हमें
जबान में प्यार घोले, शान्ति और इन्क़लाब की ख़िदमत में
कैसे कहें कि सुनके, जी घबराता है नब्ज़ थरथराई है
बेसाख़्ता ही मचलती है ख़यालों की जुम्बिश
रंग-रोगन, पहनावा, वो बेदिली, शबे वस्ल की बातें
वो पूछती है क्या देखने की ख़्वाहिश है मुझमें
ये जिस्म ये रूह
वो आरजू, ये हसरतें, तमन्ना, क्या हैं ?
मैं रूहे ज़मीं की रगों में उतर जाने को बेताब हूँ
जब भी कभी मचल उठने को होते हैं सन्देह
वो अपने चिलमन से ढक लेती है मेरी बेचैन फ़ितरत
और गुनगुनाती है कुछ इस तरह तरन्नुम में नज़्म
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है...
कि हम बेख़याली में डूबते जा रहे हैं उस धुन में ।