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वो चेहरा / शमशेर बहादुर सिंह

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बार-बार क्यों वह एक सुनहरी मोहर-सा बनकर
वो चेहरा, एक सजीव ठप्पा-सा मेरे सीने पर,
उभर-उभर उठता है— बार-बार
एक सजीव ठप्पा-सा वो चेहरा ?
वही चेहरा ?
वो छवि मैंने
तुम्हारे अन्दर देखी, जिसे मैं
ढूँढ़ रहा था
कोई अमर सिद्धान्त हो जैसे, जो मेरे अन्दर
प्रतिबिम्बित हो रहा था
झीने बादलों में सूर्य-सा