मैं ये जानती हूँ
मेरे राजा राम
कि
सत्ता और प्रभुता का विष
बहुत मीठा है
जहाँ
ज़िन्दगी की बिछी बिसात पर
तुमने
स्वयं अपने ही मोहरे को पीटा है
और
यह भी जानती हूँ
कि त्याग का दुख
त्यागे जाने की पीड़ा से बहुत बड़ा है
तभी तो
अपने मन के निन्यानवे हिस्सों की आहुति
तुम्हारे कर्त्तव्य के अग्निकुंड में दे दी मैंने ।
मेरे मन के सुकोमल हिस्सों पर खड़ी
इस अडिग अयोध्या में
तुम्हारी मर्यादा तो रह गई मेरे राजा राम
किन्तु
मेरे मन का सौवाँ हिस्सा आज तुमसे यह पूछता है
कि
अधिकार क्या केवल उन्हें मिलते हैं
जिन्हें
छीनना आता है ।
मेरे मन के निन्यानवे हिस्सों को
तुम्हारे दुख में
सहज होकर जीना आता था
किन्तु
मेरे मन का
यह ज़िद्दी, हठी, अबोध सौवाँ हिस्सा
आज
अधिकार से,
मनुहार से,
प्यार से तुमसे यह पूछता है
कि
राजा के इस अभेद्य कवच के भीतर
तुम्हारा एक अपना
नितांत अपना मन भी तो होगा ?
तुम्हारे
उसी मन के भीतर पलने वाला
अपराध-बोध
यदि
एक दिन इतना बड़ा हो जाए
कि
तुम
राज्य, धर्म, और मर्यादा की सब परिभाषाएँ
और अर्थ भूलकर एक दिन मेरे पास मेरी तपोभूमि में
लौट आना चाहो
तो
क्या तुम सिर्फ़ इसलिए नहीं आओगे
कि तुम मुझसे आँख मिलाने का साहस नहीं रखते ?
हर बार
तुम
मेरे प्रति तुम इतने निष्ठुर क्यों हो जाते हो राम !!!
तुम्हार कुल !
तुम्हारी मर्यादा !! और अब
तुम्हारा ही अपराधबोध !!!
तुम्हारा यह स्वार्थ
तुम्हारे पुरुष होने का परिणाम है
या
मेरे स्त्री होने का दंड ??
मैं
यह कभी जान नहीं पाई
इसलिए
आज मेरे मन का यह सौवाँ हिस्सा तुमसे यह पूछता है ।