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वो मुझको आँख भरकर / अशोक अंजुम
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वो मुझको आँख भरकर देखता है
बड़ी हसरत से खंजर देखता है
तू जिसमें सिर्फ़ पत्थर देखता है
वहीं पर कोई ईश्वर देखता है
न कोई देख सकता है वहाँ तक
जहाँ तक एक शायर देखता है
तू जो भी कर रहा है बेखुदी में
समझ ले ये कि नटवर देखता है
उसे अपनों से यों नारें मिली हैं
वो सावन में भी पतझर देखता है
मैं पारस तो नहीं, सच बोलता हूँ
णमाना फिर क्यों देखता है
घटायें देखकर खुश हो रहे सब
मगर होरी क्यों छप्पर देखता है
अगर कुछ भी नहीं है बीच अपने
वो फिर क्यों मुझको मुड़कर देखता है