भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शंका समाधान / 1 / भिखारी ठाकुर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

प्रसंग:

लोककलाकार भिखारी ठाकुर अपने जीवन-काल में ही अपने तमासों, लोक-भजन, लोक-कीर्त्तन एवं लोकगीतों के कारण इतने लोकप्रिय हो गये थे कि जनता भिखारी ठाकुर की रचनाओं के लिए लालायित रहती थी। इस बने-बनाये बाज़ार को देखकर जनभावनाओं का लाभ उठाने के लिए कुछ लोगों ने उनकी पुस्तकें यथावत् प्रकाशित करा लीं और कुछ दूसरे लोगों ने उनके प्रसिद्ध गीतों को कुछ फेर-बदल या फेट-फाँट कर पुस्तकाकार छपवा लिया। इस प्रकार उन्हें बदनाम करने तथा पैसा कमाने का प्रयास किया गया। इन सब बातों से भिखारी ठाकुर को मर्मान्तक पीड़ होती थी; किन्तु एक सृजनशील कवि ने इसका जवाब एक कवि के रूप में आम जनता के समक्ष प्रस्तुत किया, ताकि उनकी शंका का समाधान पूर्णतः हो जाय। इसमें उनकी ग्लानि, परिहास और व्यंग के साथ भावनांे की ऊँचाई परिलक्षित होती है।

लोककलाकार भिखारी ठाकुर की एक पीड़ा यह भी थी कि तत्कालीन समाज की जाति, व्यवस्था तथा सामंती मानसिकता के कारण नाई जाति में उत्पन्न भिखारी ठाकुर को नीची नजरों से देखते थे और उनके लिए 'भिखरिया' आदि का प्रयोग करते थे और भिखारी ठाकुर की लोककला ने लोकप्रियता और दूसरी ओर समाज के कुछ वर्गों में ऐसा अपमान भिखारी ठाकुर को सह्य नहीं था। उनकी प्रशंसक जनता भी इस स्थिति से बेचैन थी। इसलिए भिखारी ठाकुर को इसके लिए लिखना पड़ा और अनुरोध करना पड़ा कि ऐसा होना प्रत्येक दृष्टि से उचित नहीं।

लोककलाकार भिखारी ठाकुर मातृभाषा भोजपुरी के अलावे किसी अन्य भाषा के अच्छे ज्ञाता नहीं थे और न उनकी विधिवत शिक्षा हुई थी। इसलिए जब वे हिन्दी में बोलते थे, तो वह भाषिक शुद्धता को उतना महत्त्व नहीं देते थे। टूटी-फूटी हिन्दी बोलते थे; क्योंकि उनके मन में राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रति अगाध आदर था और वे भाषा की शुद्धता से अधिक बातों या तथ्यों को रखना चाहते थे। इसलिए, शंका समाधान नामक उनकी पुस्तक में भाषिक अशुद्धियाँ हैं। यदि उनकोशुद्ध कर प्रस्तुत किया जाता तो उसकी मौलिकता प्रभावित होती। दूसरी बात यह कि पाठकों को यह भी देखना चाहिए कि इतना कम पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी कितना महत्त्वपूर्ण कार्य कर सका, जो बहुत पढ़े-लिखे नहींकर पाते। इसीलिए इसकी भाषा में कोई छेड़छाड़ नहीं की गयी है। -सम्पादक

वार्तिक:

श्री अयोध्याजी के धोबी को मैं प्रणाम करता हूँ जिन्होंने रामजी की शिकायत की, जिस जरिये 'लव कुश काण्ड' रामायण में उत्पन्न हुआ। वैसा हीं मेरी शिकायत जो-जो मनुष्य छपवाया, उसी शिकायत के जरिये 'शंका-समाधान' किताब तैयार हुई. इस किताब को शुरू से आखिर तक सज्जनों चित्त लगाकर पढ़ने योग्य है।

भिखारी कथन शंका समाधान

वार्तिक:

यथाशक्ति हमारे पास में दो किसम का सौदा है। जैसे समुद्र में अमृत-विष दोनों की उत्पत्ति हुई, वैसे ही हमारे दूकान में एक गुण है और दूसरा औगुण। आजकल के जमाने में हमारा दोनों सौदा बिक्री हो रहा है। अपना गाँव, जवार, दरवार, गृहस्थ, पंडित, साधु, कवि सज्जनों के यहाँ मेरा बोलाहट होता है। जब वहाँ हम जाते हैं, तो सुन्दर बिछौना और भोजन मिलता है। मेरा गुण देखकर के हर बात से आदरपूर्वक रुपया से विदाई होता है, वहीं गृहस्थ-दरवार के सज्जन हमारे गुण के ग्राहक हैं, उसी से मेरा बच्चों का प्रतिपालन होता है। जो कोई मेरा नाम लेकर शिकायत 'रेकार' के किताब छपवा कर के बिक्री कर उस नफा से अपने बच्चों को पालते हैं, वही तो मेरा अवगुण का ग्राहक है। जैसे रामायण जी में लिखा है कि:-

दोहा

भलो भलाहि पै लहइ, लहइ निचाई नीचु।
सुधा सराहिअ अमरता, गरल सराहिअ मीचु।
रा।च।मा।, बा।का-5

चौपाई
खल अघ अगुन साधु गुनगाहा। उभय अपार उदधि अवगाहा।
तेहि तें कछु गुन दोष बखाने। संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने॥
भलेउ पोच सब बिधि उपजाए. गनि गुन दोष बेद बिलगाए॥
कहहिं बेद-इतिहास-पुराना। विधि प्रपंचु गुन अवगुन साना॥
दुख-सुख पाप-पुन्य दिन-राती। साधु-असाधु सुजाति-कुजाती।
दानवदेव ऊँच अरु नीचू। अमिअ सुजीवनु माहुरु मीचू।
माया ब्रह्म जीव जगदीसा। लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा॥
कासी मग सुरसरि क्रमनासा। मरु मारव महिदेव गवासा॥
सरग-नरक अनुराग-बिराग। निगमागम गुन-दोष बिभागा॥
रा।च।मा।, बा।का 5 / 1-8

दोहा

जड़ चेतन गुन दोषमय, बिस्व कीन्ह करतार।
संत हंस गुन गहहिं पय, परिहरी बारि बिकार॥
रा।च।मा।बा।क। दो-6