भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
शगुन / भरत ओला
Kavita Kosh से
जेठ जवानी पर है
तपत और लू
उगने लगी सी है
ठूंठ सी
डूंड उपड़ने लगे है
खंख से भर गया है
समूचा आकाश
धोरे की बरक
पसर गई है
राह पर
समुद्र दूर नहीं
पूर्ण होगें
मरूधरा के सोलह श्रृगांर