भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शदीद गरमी के मौसम में मुशाइरा / दिलावर 'फ़िगार'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ये महफ़िल-ए-सुख़न थी मई के महीने में
शायर सभी नहाए हुए थे पसीने में

ज़िन्दा रहेंगे हश्र तक उन शाइरों के नाम
जो इस मुशाइरा में सुनाए गए कलाम

सद्र-ए-मुशाइरा कि जनाब-ए-'ख़ुमार' थे
बेकस थे बे-वतन थे ग़रीब-उद-दयार थे

'माहिर' थे बे-क़रार तो 'अहक़र' थे बद-हवास
'कौसर' पुकारते थे कि पानी का इक गिलास

'शौक़' ओ 'नुशूर' ओ 'साहिर' ओ 'शायर' 'फ़िगार' ओ 'राज़'
इक मक़बरे में दफ़्न थे जुमला शहीद-ए-नाज़

ऐसा भी एक वक़्त नज़र से गुज़र गया
जब 'साबरी' के सब्र का पैमाना भर गया

ये मेहमाँ थे और कोई मेज़बाँ न था
इन आल-इंडियों का कोई क़द्र-दाँ न था

गर्मी से दिल-गिरफ़्ता न था सिर्फ़ इक 'अमीर'
कितने ही शाइरों का वहाँ उठ गया ख़मीर

रो रो के कह रहा था इक उस्ताद-ए-धामपुर
मारा दयार-ए-ग़ैर में मुझ को वतन से दूर

अल-क़िस्सा शाइरों की वो मिट्टी हुई पलीद
शायर समझ रहे थे कि हम अब हुए शहीद

वो शाइरों का जम्म-ए-ग़फ़ीर एक हॉल में
दम तोड़ते हों जैसे मरीज़ अस्पताल में

वो तिश्नगी वो हब्स वो गर्मी कि अल-अमाँ
मुँह से निकल पड़ी थी इक उस्ताद की ज़बाँ

शायर थे बन्द एक सिनेमा के हाल में
पँछी फँसे हुए थे शिकारी के जाल में

वो प्यास थी कि जाम-ए-क़ज़ा माँगते थे लोग
वो हब्स था कि लू की दुआ माँगते थे लोग

मौसम कुछ ऐसा गर्म कुछ इतना ख़राब था
शायर जो बज़्म-ए-शेर में आया कबाब था

बज़्म-ए-सुख़न की रात क़यामत की रात थी
हम शायरों के हक़ में शहादत की रात थी

कुछ अहल-ए-ज़ौक़ लाए थे साथ अपने तौलिया
नंगे बदन ही बैठे थे कुछ पीर ओ औलिया

पाजामा ओ क़मीस न आया बदन को रास
बैठे थे लोग पहने हुए क़ुदरती लिबास

कैसे कहूँ वो अहल-ए-अदब बेवक़ूफ़ थे
इतना ज़रूर है कि वो मौसम-प्रूफ़ थे

गर्मी से मुज़्तरिब थे ये शायर ये सामईन
कहते थे हम पे रहम कर ऐ रब्ब-ए-आलमीन

ये आख़िरी गुनाह तो हो जाए दर-गुज़र
अब हम मुशाइरा में न जाएँगे भूल कर

ये होश किस को था कि वहाँ किस ने क्या किया
सब को ये फ़िक्र थी कि मिले जल्द ख़ूँ-बहा

हालाँकि जान बचने की सूरत न थी कोई
हुक्म-ए-ख़ुदा कि अपनी क़ज़ा मुल्तवी हुई