शब्दवेध (कविता) / रामगोपाल 'रुद्र'
विज्ञान दक्ष यजमान; नध रहा विश्वमेध;
तब, यह किसका सन्धान? सध रहा शब्दवेध!–
' मन बन्धन माँग रहा, मन के बन्धन तोड़ो;
ये जड़ बन्धन बेकार; तार चिन्मय जोड़ो'।
तुम आज बहुत दिन पर आईं, मन की रानी!
तुम आज बहुत दिन पर लाईं, मन की बानी!
मेरे जीवन की सरिता का फिर खुला स्रोत;
फिर चली धार, तिर चले तीर-से भाव-पोत।
मरु में जैसे अन्त: सलिला की धार लीन,
स्वर-सरिता थी हो गई बीच में ही लीन,
मैं बालू का था ढेर, ढेर हो रहे प्राण;
व्याकुल थे वर्षण की तृष्णा से बिन्दु-बाण।
तुम, सहसा, श्याम घटा बन छाईं, पक्षि-प्राण!
उमड़ा-उमड़ा अन्तस्, पावस का आसमान।
मरु के तप ने तुमको पाया, ज्यों प्रथम सिद्धि;
तरु ने पाया जीवन; जीवन ने कला-वृद्धि;
तुम नाच उठीं, झमझम बरसा सावन भावन;
मन थिरका शतदृग-मोर कि प्राण बने शिंजन;
काजल की घनी बरुनियों में कजली का मन;
'पी कहाँ?' पपीहा बोल उठा, उन्मन बन-बन;
'पी कहाँ?' रटे पियराए आमों के यौवन
कि बजा घन-घन, घनघना उठा आकाश सघन
'पी यहाँ, यहाँ रे, यहाँ, प्राण!' हृन्नयन खोल;
ज्ञानान्ध! प्रेम की कूँजी ले अन्तर टटोल;
आँखों के मन की बाढ़ देख, जल ही जल है!
दिव्याक्ष! खोल, आँखें, गवाक्ष अन्तस्तल है! '
मुसकाया फूलों का आनन, कलिका-कानन;
लहराया अम्बर नील, मेघ-गागर का मन;
सरसाया मधुवन का आँगन, तन-मन भींगा;
भरमाया मेघ, धरा का धूल-बसन भींगा;
दूबों की पहली लाज हुई पानी-पानी;
चल पड़े हंस-निर्झर शैलों से सैलानी;
सीकर पग-झंकृत झाँझ, चली झंझा रानी;
मुक्ता-मणियों के रास; हार-हीरक टूटे;
राधा के बन के गान, कण्ठ-कीचक फूटे;
रोमांच गुलाबों के तन में, काँपे कदम्ब;
लतिकाओं का अंचल सरका, सिहरे कलम्ब;
अलका वियोगिनी बीन, श्वास बन गए तार;
साधनालाप, स्थायी वियोग, अन्तरा ज्वार;
आहों में बोला षड्ज, दाह में ऋषभ-नाद;
मध्यम में हूक, जगी कोमल गान्धार याद;
धैवत गुणवादी चित्त बना अनहद निनाद;
उन्माद मेघ-मल्हार प्रवासी-प्रियाह्लाद;
तुम गगन-रन्ध्र में रागीं, रानी बना त्याग;
खांडव के भव में नव-मरन्द-परिमल-पराग;
रसमयी रसा के रोम-रोम में अभिनन्दन;
हरिदाभ दाभ उन्नयन, अर्चना के वन्दन;
फिर राम-शृंग पर घनन्नाद उतरे विमान;
बूँदों के बंदनवार टँगे छाया-वितान;
सुरधनु का मण्डप तना, सुधर्मा की हलचल;
हलचल-हलचल सब ओर, पवन चंचल चलदल;
कानाफूसी हो रही पात से पात बोल
अलकापति के उद्दण्ड दण्ड को रहे तोल;
आँखों-आँखों संकेत चले, बिजली चमकी,
किन्नरियों की स्वरपरता-तत्परता तमकी;
बन्दी दुलार उन्मुक्त प्यार का बना छंद;
धृतपवनपक्ष उड़ चले यक्ष-धावन अमंद;
निर्ममता का हो गया प्रेम से प्रतीकार;
रीझे कुबेर; जड़ता पर विजयी कलाकार।
ओ कलाकार की कल्याणी, कवि की रानी!
तुम भूल नहीं पाई मुझको, मेरी वाणी!
तुम ऐसे आईं आज, कहूँ कैसे आईं!
जीवन के शरन्नयन में जैसे सरसाईं!
नीलम के दरपन में पूनम की परछाई!
किरणों की धरकर डोर लहर पर लहराई!
आओ, मेरी जीवनधारा, आओ, आओ;
आओ, मेरे सागर में, प्राण! समा जाओ;
आओ, मेरे अंत: पुर की अन्तर्वाणी!
आओ, मेरी युग-युग की जानी-पहचानी!
तुम 'मैं' हो जाओ, प्राण! और मैं 'तुम' होऊँ;
तुम चंचलता, मैं जीवन की जड़ता खोऊँ।
ओ कलाकार की कल्याणी, कविता-रानी!
तुम आज बहुत दिन पर आईं, मेरी वाणी!