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शहर, आइना तुम और मैं / तलअत इरफ़ानी

शहर, आइना तुम और मैं
तुम्हें, अपने आलावा शहर में
जब कोई शै अच्छी नहीं लगती,
तुम्हें जब कोई शै अच्छी नहीं लगती,
तो मैं तुमसे,
तुम्हारे आइने की बात कहता हूँ,
के हर लम्हा ख़ुद उसके पास रहता हूँ ।
मगर तुम हो कि अपने आइने को भी
उठा कर
भीड़ के चेहरे से अक्सर जोड़ देते हो,
अब ऐसे में
अगर तुमसे कोई पूछे
"सिवा इक लज्ज़ते दर्दे निहाँ
तुम किस के वाकिफ हो ?"
तो शायद रो पड़ो ,
या अन्दर अन्दर टूट जाओगे
कि मैं जो हर कहीं
मौजूदो न मौजूद रहता हूँ
(फ़कत ऐसे ही आलम के लिए हर आँख से मफ़्कूद रहता हूँ)
तुम्हारे आंसुओं के दरमियाँ से
जज़्ब कर के जा चुका हूँगा,
तुम्हारे आइने को साफ़ रखने की गरज़ से
मुझ को जो कहना था सब समझा चुका हूँगा।