भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
शांत जल में खलबली है / हरिवंश प्रभात
Kavita Kosh से
शांत जल में खलबली है।
एक फिर दुल्हन जली है।
आग की लपटें बताओ,
कैसी यह पछुआ चली है।
भूल जायेंगे सभी जब,
हफ़्तों तक चर्चा चली है।
होगा भी बदलाव कैसे,
सोच केवल मखमली है।
कोई कहता रात प्यारी,
सुबह दूजे को भली है।
मैं रहूँगा ज़िन्दा कबतक,
ज़िंदगी अनबुझ गली है।
साथ देता जो था मेरा,
बस उसी की यह गली है।