शाप नहीं वरदान / जनार्दन कालीचरण
तपित , जड़ित, अचल, विकल एक सूर्ति अनोखी ।
अजीब-सी बनी दिव्य सूरत उस की दुखी ।।
नित्य अपार नील व्योम वह चूम रही ।
अब-सम उदर में विटप-कुल नीड़ दे रही ।।
पहनाता स्वर्ण-माल सूर्य निज हस्त से ।
शाम भी सधवा-सी गले मिलती उस से ।।
कुँचित अजन सी अलक प्रसारित कर उसे ।
प्रथम अभिवादन करती निशा वर्षों से ।।
विहग-कुल, कल-कलरव जहाँ सदा कर रहा ।
मस्तक जिस का जलद-समूह शुचि कर रहा ।
विपुल आघात आंधी-तूफान नित सह रही ।
किंतु तापस-सी मौन है नित खड़ी रही ।।
वह कौन ? स्यन्तक ! अरे वचन न रख पाया ।
पड़ी तुझ पर अंध वक्र माया की छाया ।।
परियों का अटल विश्वास था जो पाया ।
धाग-सम उसे झटके में एक तोड़ दिया ।।
मूढ़ साथी इच्छा सुन पाषाण बन के ।
स्व-पुरूषत्व-महत्व का मोह न रख कर के ।।
अभिशाप-ताप तम-भार-भाल लिये अब भी ।
अरे-मिटता प्रायश्चित से अघ भी कभी ।।
पर शाप से भू गौरव वृद्धि कर रहा ।
शीत-शुभ्र नूतन अश्रु-धार बहा रहा ।।
जो नदी बन बहती क्षेत्रों को सर्वदा ।
नव-जीवन प्रदान करती ज्यों नर्मदा ।।
तेरे अविश्वास ने दी मधुर रम्यता ।
मम पुनीत मातृ भूमि की बढ़ी भव्यता ।।
गल-माला तू रमणी मॉरीशस की बना ।
बटोही गणों को देता बावला बना ।।
मुड़िया गिरि सम मुड़िया नग दूसरा नहीं ।
आल्प्स और भारत-मुकिट से निराला यही ।।
धन्य हुई पाकर उस को यह पावन मही ।
शाश्वत है भव्य मुड़िया अपना यही ।।