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शाम की उदासी और विदा / बालस्वरूप राही

भीतर है अंधकुआं, बाहर है सिर्फ धुआं
रमे कहां मेरा मन
दूरागत ध्वनियों की गूंज सुनी जाती है
निशि के रीतेपन में
अनदेखे सपनों की
छायाएं पड़ती हैं झीलों के दर्पण में
झूठे ये सभी वहम जर्जर सम्पूर्ण अहम
भ्रमे कहां मेरा मन।

धुंधलाई सड़कों पर कुम्हलाये चेहरे हैं
शाम की उदासी है
घिरती अंधियारी के धूल भरे जूड़े में
गुंथा फूल बासी है
दृश्य सभी उजड़े हैं, रंग अभी उखड़े हैं
जमे कहां मेरा मन।

अंजुरी में भरे हुए पूजा के पानी सा
समय बहा जा रहा
आखिरी विदाई में
तुम से कुछ कहना था, नहीं कहा जा रहा
दीवारें, छतें ढहीं, बुनियादें कांप रहीं
थमे कहां मेरा मन।