भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शायद पता हो मधुमक्खियों को / योगेंद्र कृष्णा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अगले मौसम के इंतज़ार में
बीतता रहा हर मौसम
शाही इस बाग में
कुछ इस तरह…

शिकायत थी उन्हें
इस बार सर्दियां अधिक थीं
गर्मी भी परबान पर
और बरसात भी कुछ अधिक हो गई

वे सूखे और बाढ़ के बीच
अपना रास्ता चुनते रहे
चिलचिलाती धूप और
सर्द हवाओं के बीच
पगडंडियां बुनते रहे…

उम्मीद थी उन्हें
बिरासत में मिले अपने पेड़ों से
लेकिन इस बार
आम में मंजर भी कम लगे
अमरूद तो शरारती बच्चे चुरा ले गए

फलों के बिना पेड़ों की छांव भी
कितनी हल्की है
तेज हवाओं में उड़ जाएं जैसे

नारियल तो इस बार
और ऊंचे फले
पिछले ही वर्ष तो
टूट गई थी
चढ़ने वाले उस बाग़बान की कमर…
लेकिन इसके पहले
कमर की उसकी रस्सी टूटी थी…

शहतूत की तो पूछिए मत
लदे हैं पेड़…
पड़ोस के सारे बच्चों
और मधुमक्खियों के छत्तों से

अकसर ही बेचैनियों में
वे कमरे से बाहर निकल आते हैं
बाहर… अंदर और फिर बाहर…
वे इंसानों से नहीं मधुमक्खियों से घबराते हैं
इसलिए शहतूत तक तो
फटकते भी नहीं

मधुमक्खियां इन बच्चों को
आखिर क्यों नहीं छूतीं…
सोचते हैं वे
शायद पता हो मधुमक्खियों को
कि अछूत हैं नंग-धड़ंग ये बच्चे…