भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शालू सिंह / रूपम मिश्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम बबुवाने से पढ़ने आती थी, शालू सिंह !
तुम लड़की थी और स्कूल जाती थी,
और तुम साइकिल से स्कूल जाती थी
तुम हमारे जमाने की पहली लड़की थी जो इण्टर कॉलेज जाती थी

शालू सिंह ! तुम्हारी आँखों पर चश्मा फबता था
पर सारे शुकुलाने, तिऊराने, दुबाने, पड़ाने और तो और बबुवाने के
लड़कों की आँखों में चुभता था तुम्हारा चश्मा
तुम्हें देखते ही वे टेपरिकार्डर की तरह बजने लगते थे —
गोरे-गोरे मुखड़े पे काला-काला चश्मा

हम दुप्पटे और बालों को कसकर बाँधने वाली लड़कियाँ तुम्हें हसरत से देखते थे
साध को मन में दबाकर बतियाते कि शालू सिंह ये कहती हैं वो पढ़ती हैं
शालू सिंह दुप्पटे को गले में लपेटतीं हैं
और वहीं हमारे घर के लड़के हिक़ारत से कहते — ज्यादा शालू सिंह न बनो
तुम्हारे कटे बाल जब हवा में लहराते तो हम दो चोटी वाली लड़कियों को
बहुत अच्छे लगते थे
पर उन्हीं सलीके से कटे बालों को वे लौंडाकट कह कर चिढ़ाते

उन दिनों स्कूल के डीह जैसे लड़को के गोल में
चर्चा का एक ही विषय होता — शालू सिंह
जिसमें गल्प को सच साबित करने के लिए
विद्या क़सम बार-बार खाई जाती
अब जबकि दुनिया तेज़ी से भयावह लगने लगी है तो
एकाएक तुम याद आ जाती हो, शालू सिंह !

तुम्हें बहुत बार साइकिल से धक्का देकर गिराया गया
पर तुम मरी नहीं, शालू सिंह !
ज़िन्दा रही और स्कूल भी आती थी

उस चलन की पुरनकी लड़ाई अब भी लड़ी जा रही है
अब भी हमारे पूर्ण मनुष्य होने पर भी प्रश्नचिन्ह रखे जाते हैं, शालू सिंह !