शिनाख़्त / शहनाज़ इमरानी
क्या होगा ?
कुछ होने के बारे में
ढेर सारे सवाल सामने खड़े
ग़लत जगह पर रखी सही चीज़ें
ग़लत उपयोग की आदी हो गईं
सुबह आईने में देखा
रातों की स्याही आँखों के नीचे बैठी थी
मुँह छुपाने पर अपनी ही
हथेलियों के अन्दर राहत नहीं मिलती
मैं भी तो इसी मिट्टी की हूँ
पैबस्त है गहरे लफ़्ज़ों में नाम इसका
पुरातत्व के शिलालेख की तरह
मगर कागज़ पर लिखे चन्द शब्द सुबूत हुए
हर चेहरे पर मौजूद हैं उनके शुरूआत की जड़ें
आदमी की पूरी कहानी कहती हुई
जड़ों से ही होता दरख़्त हरा
जगह नहीं बदलते दरख़्त
ग़ायब हो जाती उनकी प्रजातियाँ
पहचान विस्मृत हुई और इतिहास भी
साथ छूट सकता है कहीं भी
हवा की तरह
पिता के हाथ की तरह
रात के काले वर्कों पर सर्द सन्नाटा
ठिठुरती हवा रूक-रूक कर चलती
यह न्याय और अदालत के सोने का वक़्त
देती हूँ ख़ुद को तसल्ली
बाँधती हूँ नए सिरे से मुट्ठियाँ
अपने ही चेहरे में ख़ुद को ढूँढ़ती हूँ
ख़ुद के होने में ख़ुद ही को
मैं किसको पुरसा देती
मुझे ताज़ियत तो ख़ुद से करनी थी ।