जैसे गहरे सागर से मिलकर नदियाँ होना
चाहे एकाकार,
खो जाना चाहे गहराई में,
हाँ, मैं भी चाहती हूँ दुबकना,
उसमें कहीं दूर.
जैसे उफनती नदियाँ मचाती हैं शोकाकुल शोर,
अपने अकेलेपन का,
मैं भी विलाप करती हूँ,
अकेलेपन के उत्सव का।
जैसे सूरज के साथ मिलकर
एक सुकुमार गुलाब,
खिला देता है ख़ुद को,
खोल देता है अपनी देह के द्वार,
वैसे ही मैं खोल देती हूँ, अपने ह्रदय के द्वार,
उस के लिए,
हो जाती हूँ, मैं अनावृत्त
पूरी तरह से उसी के लिए।
जैसे खो जाती सुबह की पवित्र ओस,
सूरज की पहली किरण में,
हो जाती हैं मुक्त,
वैसे ही चाहती हूं मैं भी मुक्त होना,
जैसे नहीं छोडती ओस कोई निशानी,
धरती के हरे चेहरे पर,
सुनो मेरी भी कोई भी छाप नहीं,
उसके चेहरे पर,
जानती हैं नदियां कि आखिर जाना उन्हें कहाँ हैं.
ओस भी खोज लेती ही है रस्ता अपना,
धूप दुलार कर हँसाती है, खिलाती है
गुलाब को,
तो क्या मेरे अकेले बीते हुए कल में,
वह दस्तक देने आएगा?
दुखद बीता हुआ कल,
उसे अन्तत: पाएगा?
मूल अँग्रेज़ी से अनुवाद : सोनाली मिश्र
और अब पढ़िए कविता मूल अँग्रेज़ी में
Confluents
As rivers seek the sea,
Much more deep than they,
So my soul seeks thee
Far away:
As running rivers moan
On their course alone
So I moan
Left alone.
As the delicate rose
To the sun's sweet strength
Doth herself unclose,
Breadth and length:
So spreads my heart to thee
Unveiled utterly,
I to thee
Utterly.
�As morning dew exhales
Sunwards pure and free,
So my spirit fails
After thee:
As dew leaves not a trace
On the green earth's face;
I, no trace
On thy face.
�
Its goal the river knows,
Dewdrops find a way,
Sunlight cheers the rose
In her day:
Shall I, lone sorrow past,
Find thee at the last?
Sorrow past,
Thee at last?