भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

संन्यास - चेतना / महेन्द्र भटनागर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अपनों का

कुटिल विश्वासघाती खेल
जब झेल लेता है
सरल विश्वास-धर्मी आदमी,
तब.....
एकांत में
रोता-तड़पता है,
दुर्भाग्य पर
रह-रह कलपता है !

किन्तु;
हत्या नहीं करता,
आत्म-हंता भी नहीं बनता;
अकेला
मानसिक नरकाग्नि में
खामोश जलता है,
स्वयं को दे असंगत सांत्वना
फिर-फिर भुलावे में भटकता है,
यों ही स्वयं को
बारम्बार छलता है !

उसे बुज़दिल नहीं समझो
जानता है वह
कुछ हासिल नहीं होगा
किसी को कोसने से।
भागना क्या
भोगने से !