भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सचिवालय से लौटते हुए / सत्यनारायण स्नेही

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यहाँ
जारी होती नित नई अधिसूचनाएँ
बड़े बैनर पर लोक-कल्याण
प्रदर्शित होते जनसेवा के सरोकार
नहीं दिखती भावनाएँ, नहीं जज़बात
होती है सिर्फ़ कुर्सी की दरकार
जहाँ
कुर्सी
कुर्सी की मार्फ़त
कुर्सी से बात करती है।
यहाँ आया आदमी
नहीं जानता कुर्सी की फ़ितरत
उम्रभर खुले आसमान में
प्रकृति को सजाने वाला पेड़
कुर्सी में तबदील होते ही
हरियाली से नहीं
लोहे से समझौता करता है
जहाँ
हर शख्स
कुर्सी के लिए जीता है।
यहाँ
इस कुर्सी पर
तुम्हारे लिए नियम
बनाये जाते हैं
और कानून फाइलों में
बंद किये जाते हैं।
यहाँ
तुम्हारे खून-पसीने से सींचा
हर पौधा
काठ हो जाता है
जो तरह-तरह की नक्काशी से
कमरे की सूरत तो बदलता है
तुम्हारी क़िस्मत नहीं
तुम इस देश की
असलियत जानना चाह्ते हो
तो उस देवदार के पास जाओ
जो मेज के रूप में
कुर्सी की हिफ़ाज़त कर रहा है।