सच्ची थी तुम / अरुण श्री
कितनी सच्ची थी तुम, और मैं कितना झूठा था !!
तुम्हे पसंद नहीं थी साँवली ख़ामोशी।
मैं चाहता कि बचा रहे मेरा साँवलापन चमकीले संक्रमण से।
तब रंगों का अर्थ न तुम जानती थी, न मैं।
एक गर्मी की छुट्टियों में -
तुम्हारी आँखों में उतर गया मेरा साँवला रंग।
मेरी चुप्पी थोड़ी तुम जैसी चटक रंग हो गई थी।
तुम गुलाबी फ्रोक पहने मेरा रंग अपनी हथेली में भर लेती।
मैं अपने सीने तक पहुँचते तुम्हारे माथे को सहलाता कह उठता -
कि अभी बच्ची हो।
तुम तुनक कर कोई स्टूल खोजने लगती।
तुम बड़ी होकर भी बच्ची ही रही, मैं कवि होने लगा।
तुम्हारी थकी-थकी हँसी मेरी बाँहों में सोई रहती रात भर।
मैं तुम्हारे बालों में शब्द पिरोता, माथे पर कविताएँ लिखता।
एक करवट में बिताई गई पवित्र रातों को -
सुबह उठते पूजाघर में छुपा आती तुम।
मैं उसे बिखेर देता अपनी डायरी के पन्नों पर।
आरती गाते हुए भी तुम्हारे चेहरे पर पसरा रहता लाल रंग
दीवारें कह उठतीं कि वो नहीं बदलेंगी अपना रंग तुम्हारे रंग से।
मैं खूब जोर-जोर पढता अभिसार की कविताएँ।
दीवारों का रंग और काला हो रोशनदान तक पसर जाता।
हमने तब जाना कि एक रंग होता है “अँधेरा” भी।
रात भर तुम्हारी आँखों से बहता रहता मेरा साँवलापन।
तुम अलसुबह काजल लगा लेती कि छुपी रहे रातों की बेरंग नमी।
मैं फाड़ देता अपनी डायरी का एक पन्ना।
मेरा दिया सिन्दूर तुम चढ़ाती रही गाँव के सत्ती चौरे पर।
तुम्हारी दी हुई कलम को तोड़ कर फेंक दिया मैंने।
उत्तरपुस्तिकाओं पर उसी कलम से पहला अक्षर टाँकता था मैं।
मैंने स्वीकार कर लिया अनुत्तीर्ण होने का भय।
तुमने काजल लगाते हुए कहा कि मुझे याद करोगी तुम।
मैंने कहा कि मैं कभी नहीं लिखूँगा कविताएँ।
कितनी सच्ची थी तुम, और मैं कितना झूठा था !!