भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सजा / कल्पना पंत
Kavita Kosh से
शिशिर के इन ठिठुरते दिनों में
मेरी विचार तूलिका
दिल के अभिशप्त कैनवास पर
हर्ष का रंग भरने में
असफल हो जाती है
एक हिमखंड-सा टूट गिरता है
और कैनवास भभकने लगता है
दो आंखें डबाडब भरी हुई आत्मा
को छील जाती हैं
समय चक्र को उल्टा घुमाने
की कोशिश में दिल की हथेलियाँ
लहुलुहान हो जाती हैं
दूरी दुष्चक्र की भांति इच्छाओं
पर छा जाती
पाला पड़ा मन पत्ता
ठिठुरते कंपकपाते रह जाता है
उस पर घाम नहीं आता
स्मृतियाँ रात भर ठंडे ठिठुरते रेगिस्तान में बेहया होकर भटकती हैं
फिर रुदाली बन जाती हैं
आस का कोई पत्ता नहीं खड़कता
मात्र जीवित संज्ञा रह जाती है।
मैं इस उदासी को खौलाना चाहती हूँ
ताकि वह खौलते लावे सा
मुझे भस्मीभूत कर दे
फिर-फिर मुझे जला दे
मुझे उदास रहने पर सजा दे।