भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सपने का सच / मोहम्मद साजिद ख़ान
Kavita Kosh से
सपने का सच, सच हो जाए,
कहो मज़ा फिर कितना आए !
दौड़ रही मै आगे- आगे,
पीछे मोटा भालू भागे ।
साँस फूलती, चला न जाता
और कलेजा मुँह को आता ।
अगर वही सचमुच आ जाए,
कहो मज़ा फिर कितना आए !
चढ़ पहाड़ की ऊँची चोटी,
बैठी एक शेरनी मोटी ।
गिरी फ़िसल कर मैं तो नीचे
और शेरनी पीछे-पीछे ।
अगर कहीं मुझको खा जाए,
कहो मज़ा फिर कितना आए!
इन्द्रधनुष छूने को मन में,
तितली बनकर उड़ूँ गगन में ।
चंदा मामा से मिल आई,
तारों के संग धूम मचाई ।
पंख अगर मुझको लग जाएँ,
कहो मज़ा फिर कितना आए !