भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सबक / बालकृष्ण काबरा ’एतेश’ / माया एंजलो
Kavita Kosh से
मैं मरती रहती हूँ बार-बार।
नसें रिक्त फैल जातीं, खुलती जैसे
सोए हुए बच्चों की
नन्हीं मुट्ठियाँ।
पुराने मक़बरों की स्मृति
सड़ता माँस और कृमियाँ
नहीं मेरा विश्वास
चुनौती के ख़िलाफ़।
ये वर्ष, ये शुष्क पराजय हैं जीवित
मेरे चेहरे की झुर्रियों के भीतर।
ये करतीं मेरी आँखों को निष्प्रभ, अन्तत:
मैं मरती रहती हूँ
कि मैं प्रेम करती हूँ जीने से।
मूल अँग्रेज़ी से अनुवाद : बालकृष्ण काबरा ’एतेश’