सबमें रमा राम / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
मुग्धकर है उसका गुण-ग्राम;
रमा जगती-तल में है राम।
दिवस-मणि में वह दिखलाया,
उसे विधु में हँसता पाया,
अछूते नीले नभ-तल पर
पड़ी है उसकी ही छाया।
मेघ है कैसा सुंदर श्याम।
चाँदनी क्यों खिलती आती,
दामिनी दमक कहाँ पाती,
यामिनी की नीली साड़ी।
मोतियों से क्यों टँक जाती।
जो न होता वह ललित ललाम।
रंग में सबसे न्यारा है,
इंद्र-धानुष कितना प्यारा है,
उसी की आभा है उसमें,
उसी ने उसे सँवारा है।
उसी का लीलामय है नाम।
उषा का नित्य रंग लाना,
पेड़ पर चिड़ियों का गाना,
वायु का मंद-मंद बहना,
चमकती किरणों का आना,
अलौकिकता का है परिणाम।
ताप क्यों पाहन-उर खोता,
बहाता कैसे रस-सोता,
जीवनी जड़ी-बूटियाँ दे,
मेरु-शिर ऊँचा क्यों होता।
जो न बनता कमनीय निकाम।
डालियों में है लहराता,
हरे दल में है दिखलाता,
कली में है खिलता जाता,
फूल में वह है मुसकाता,
बना क्षिति-तल उससे छवि-धाम।
रसों का रस है कहलाता,
सुधा नभ से है बरसाता,
सर-सरित-लहरों में बिलसा,
मिला कल-कल रव में गाता।
सागरों में है मुक्तादाम।
मंजु छबि मानस में आँकी,
मूर्तियाँ अवलोकी बाँकी,
मंदिरों में झुक-झुक झाँका,
उसी की दिखलाई झाँकी।
कहाँ है नहीं लोक-अभिराम?
रमा जगती-तल में है राम।