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सबूत / संतोष श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
उम्र भर ज़िन्दगी को
फटकती, पछोरती रही
अरमान हवा में उड़ते रहे
कभी दूब की नोक पर
ओस से जा लिपटते
कभी फूलों के पराग पर
तितलियों संग नाचते
कभी बहती नदिया पर
चलती कश्ती की
पतवार बन थरथराते
कभी पहाड़ों से उतरते
झरनों संग दौड़ जाते
पर यह हो न सका
अब आपाधापी से थकी
अपने ही सन्नाटों में कैद हूँ
बकाया ज़िन्दगी अलगनी पर
धूप में सूख रही है